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सतना , डेस्क रिपोर्ट: मध्यप्रदेश के सतना में ऐसा म्यूजियम है जिसमें भारत के उस दौर के उपकरण मौजूद हैं जो हमारे देश की संस्कृति को दर्शाती है। भारत के उस दौर के उपकरणों को सहेजा गया है जो सालों पहले रोजमर्रा की जिंदगी में उपयोग किए जाते थे।
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इस म्यूजियम को पद्मश्री विजेता बाबूलाल दहिया ने बनाया है। उनका कहना है कि आज की पीढ़ी को पुराने जमाने की चीजों से रूबरू कराने के लिए एक उत्तम प्रयास है। यह म्यूजियम दहिया ने खुद के खर्चे से बनाया है जिसमें 200 से अधिक यंत्र, बर्तन, कई सारे औजार और हथियार शामिल किए गए जिसका आज उद्घाटन किया जाएगा। इस कार्यक्रम में विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम मुख्य अतिथि के तौर में उपस्थित रहेंगे और वही म्यूजियम का उद्घाटन करेंगे।
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पदम् श्री बाबूलाल दहिया म्यूजियम में रखी हुई है गांव के शिल्पकार बनाते थे। समाज में सात ऐसे शिल्पी थे जो अपनी वस्तुएं समाज को देते थे जिसमें लौह शिल्पी, काष्ट शिल्पी, मृदा शिल्पी, प्रस्तर शिल्पी, बांस शिल्पी, चर्म शिल्पी और धातु शिल्पी शामिल थे। इन सातों शिल्पी से बने 200 से अधिक यंत्र म्यूजियम में रखी गई है।
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राजाओं के म्यूजियम से मिली प्रेरणा
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बता दें कि दहिया को म्यूजियम बनाने की प्रेरणा राज महलों से मिली। वह बताते हैं कि वह जब भी किसी राज महल में जाते थे तो राजा महाराजाओं की राजसी जीवन शैली के स्मृतियां के संग्रहालय से मिलती थी। राजा महाराजाओं के समय की प्राचीन चीजें जैसे ढाल, तलवार, बरछी, भाले आदि भारत के गौरवशाली इतिहास को दर्शाते हैं। लेकिन कृषि जीवन की बात करें तो ग्रामीण इतिहास कहीं नहीं दिखता। रहन-सहन बदल जाने के कारण कृषि आश्रित समाज में उपयोग होने वाली चीजें चलन से बाहर हो चुकी हैं। इसलिए 7 शिल्पी के द्वारा बनाई गई वस्तुएं जो कृषि आश्रित समाज की रोजमर्रा की जिंदगी में उपयोग की जाती थी उन वस्तुओं को म्यूजियम में रखा गया है।
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संग्रहालय में मोटे अनाज और क्रांतिकारी की तलवार भी है
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बाबूलाल दहिया ने मोटे अनाज का संग्रहण है। उनके पास 50 से अधिक प्रजातियों के बीज उपलब्ध है। मोटे अनाज सहेजना और संरक्षित करने के साथ ही जैव विविधता के क्षेत्र में काम करने के लिए बाबूलाल दहिया को केंद्र सरकार ने पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया। म्यूजियम में क्रांतिकारी रणमत सिंह जो बघेली रियासतदार थे उनकी तलवार भी है। उन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने लेफ्टिनेंट बनाकर नौगांव भेजो था। 1857 कि क्रांति के दौरान उन्हें क्रांतिकारियों को पकड़ने का आदेश दिया गया। हालांकि उन्होंने ऐसा नहीं किया जिसके कारण वर्ष 1858 में उन्हें अंग्रेजों ने पकड़ लिया और 1859 में उन्हें बांदा जेल में फांसी दे दी गई।